छपरा।एक समय था, जब लम्बी यात्रा पर निकले राहगीर किसी गाँव से गुजरते हुए प्यास लगने पर किसी भी घर के दरवाज़े पर जाकर पानी माँग लेते थे, और उस घर के लोग उन्हें अपना अतिथि मानकर न केवल पानी, बल्कि भोजन की भी पेशकश करते थे। परन्तु समय बदला, और जन्म हुआ बाज़ारवाद का।
राहगीरों द्वारा पानी माँगने के बहाने घर लूटने की कुछ घटनाओं को इस तरह प्रचारित किया गया कि लोगों ने अनजान व्यक्तियों को पानी देना बंद कर दिया, और राहगीरों ने भी मांगना छोड़ दिया। परिणामस्वरूप, वही पानी जो कभी आत्मीयता और सेवा का प्रतीक था, बोतलों में बंद होकर बिकने लगा। आज स्थिति यह है कि बोतलबंद पानी का बाज़ार गाँव-गाँव तक पहुँच चुका है।
मिठाइयाँ और दुग्ध उत्पाद भी बाज़ारवाद के इसी प्रहार का शिकार हुए। पहले त्योहारों पर घरों में तरह-तरह की मिठाइयाँ और दूध से बने पकवानों की भारी माँग रहती थी। फिर अचानक ‘नकली दूध’ और ‘मिलावटी मिठाइयाँ’ पकड़े जाने की ख़बरें आने लगीं। कुछेक जगहों पर हुई इन घटनाओं को इस कदर प्रचारित किया गया मानो हर गांव में यही हो रहा हो।
फलस्वरूप, लोगों का विश्वास इन घरेलू उत्पादों से उठ गया और उनकी जगह विदेशी कंपनियों के महँगे- महँगे चॉकलेट्स ने ले ली। इस बाज़ारवाद ने गाँव के दुकानदारों और कारीगरों से उनका ग्राहक, उनकी पहचान और उनका आत्मसम्मान छीन लिया और सब कुछ सौंप दिया विदेशी ब्रांड्स व पूँजीपतियों को। और हम सब ‘कुछ मीठा हो जाए’ की धुन पर झूमते रहे।
ऐसा ही एक और हमला हुआ शिक्षा व्यवस्था और विशेष रूप से सरकारी विद्यालयों एवं वहाँ कार्यरत शिक्षकों पर। सरकार के प्रयासों से सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों और निर्धन परिवारों तक शिक्षा पहुँचाने का जो सपना साकार हो रहा था, उसे योजनाबद्ध ढंग से बदनाम किया गया। कहीं दूर घटी कोई एक घटना या संसाधनों की कमी को इतना उछाला गया कि लोगों का विश्वास सरकारी विद्यालयों से उठने लगा।
स्थिति यहाँ तक पहुँच गई कि अभिभावकों ने अपनी सीमित आमदनी में से भी कटौती कर, बच्चों को महंगे निजी विद्यालयों में भेजना शुरू कर दिया इस भ्रम में कि उनके बच्चों का भविष्य केवल वहीं सुरक्षित है। आज शिक्षा का क्षेत्र बाज़ारवाद की सबसे वीभत्स तस्वीर बन चुका है।
इसका सीधा शिकार हैं वे शिक्षक जो सरकारी विद्यालयों में निष्ठा और समर्पण के साथ कार्य कर रहे हैं। वहीं, अप्रत्यक्ष रूप से निजी विद्यालयों में कार्यरत शिक्षक भी इस शोषण के दायरे में हैं — उन्हें उनकी मेहनत, योग्यताओं और मानसिक तनाव के अनुपात में न वेतन मिलता है, न सम्मान।
आज प्रतियोगी परीक्षाओं से चुने गए शिक्षकों को भी इस तरह चित्रित किया जाता है मानो उन्हें कुछ आता ही नहीं, या वे पढ़ाना ही नहीं चाहते। यह सब अचानक नहीं हुआ। यह वर्षों से चला आ रहा सुनियोजित प्रयास है, जिसका एक ही उद्देश्य है — मुफ्त शिक्षा देने वाले सरकारी विद्यालयों और शिक्षकों की छवि को धूमिल करना ताकि निजी संस्थानों का बाज़ार और मुनाफ़ा बढ़ सके।
यह भी ध्यान देने योग्य है कि इन निजी संस्थानों में कार्यरत अधिकांश शिक्षक अत्यधिक कार्यभार और दबाव में कार्य करते हैं, परंतु उन्हें उचित पारिश्रमिक नहीं मिलता। यह भी एक प्रकार का बाज़ारवाद ही है, जहाँ शिक्षा, सेवा नहीं, व्यापार बन चुकी है।
आज जब सरकार “शिक्षा का अधिकार” जैसे महत्वपूर्ण कदमों के माध्यम से बच्चों को निःशुल्क शिक्षा, पोशाक, भोजन और पुस्तकें उपलब्ध करा रही है, और सरकारी विद्यालयों में पर्याप्त शिक्षकों की नियुक्ति हो चुकी है, तो अब समाज की ज़िम्मेदारी बनती है कि वह जागरूक हो और बाज़ारवाद के इस मायाजाल से बाहर निकले।
विशेषकर समाज के उन अभिभावकों को यह संकल्प लेना होगा कि वे अपने बच्चों को ऐसे विद्यालयों में ही पढ़ाएँगे जहाँ न बच्चों, न अभिभावकों और न ही शिक्षकों का शोषण होता हो। आपका यह छोटा-सा संकल्प शिक्षक दिवस पर सभी शिक्षकों के लिए एक महान उपहार सिद्ध हो सकता है।
अंततः, अपने समर्पण और कर्तव्यनिष्ठा के बावजूद निराधार आरोपों का सामना कर रहे शिक्षकों को प्रेरणा देने हेतु आनंद बक्षी जी की ये पंक्तियाँ समर्पित हैं:
“कुछ रीत जगत की ऐसी है, हर एक सुबह की शाम हुई
तू कौन है, तेरा नाम है क्या, सीता भी यहाँ बदनाम हुई…”